Saturday, August 9, 2014

ख़ारिज ग़ज़लें



1
झगड़े,ये फ़ितनो--फ़साद, सब यहीं रह जाएंगे
लोग चल देंगे कहीं और हम कहीं रह जाएंगे

इस जहाने-ख़ाक में कुछ भी मुक़र्रर है नहीं
फिर याद भी न आएंगे जब हम नहीं रह जाएंगे

दोस्‍ती का जो भरम देते हैं, रिश्‍ते हैं कमाल
कुछ साथ आएंगे हमेशा, कुछ कहीं रह जाएंगे

हम तेज़ क़दमों के मुसाफ़िर,छोड़ जाएंगे जहां
वो सब अधूरे ख्‍़वाब, वो किस्‍से वहीं रह जाएंगे 

शाहे-ज़माना हैं अभी हसरत नहीं गुफ़्तार की
हम पूछ लेंगे हाल जब कुछ भी नहीं रह जाएंगे
***
2
कुछ आग हाथों में लिए चलते रहे, जलते रहे
हम रात के मद्धम दिए जलते रहे, जलते रहे

रंगे-शाम है या फिर हमारा ख़ून बिखरा है
हम ज़ात के सूरज हठी, ढलते रहे, जलते रहे

अभी है वक्‍़त, ऐसे क्‍या सुपुर्दे-ख़ाक़ हो जाते
पुरानी आंच में तपते रहे, खिलते रहे, जलते रहे

उन्‍हें उम्‍मीद थी कि अब अंधेरा ही बयां होगा
अंधेरे में ये शोले-से, उन्‍हें खलते रहे, जलते रहे

जिसे इस राह में सब बरहना करके गुज़रते हैं
उस कोख के ही ख्‍़वाब हम, पलते रहे, जलते रहे
***
3
इस दिल को चैन अब तक मिरे ख्‍़वाज़ा न हुआ
आह इक घर तो हुआ, घर में दरवाज़ा न हुआ

हां वो दिन तो गए थोकदारों के, थोकदारी न गई
हुक्‍मरानी सब ओर है बस नाम का राजा न हुआ

हमें मालूम है कुछ दिल में तुमने ठान रक्‍खा है
मगर वो घाव क्‍या रह - रह के जो ताज़ा न हुआ

नगर है प्रेम का हम भी यहां तनकर गुज़रते हैं
ग़नीमत है कि भवाली है, अभी गाज़ा न हुआ
***
4
कौन किसका दोस्‍त है, कौन है अपना यहां
ज्‍यां बौद्रिलार का बस फल रहा सपना यहां

आभास है संसार ये, कुछ लोग असली हैं मगर
रंग लाएगा कभी, चलना यहां तपना यहां

मैं असल दुनिया का वासी, है वहीं मेरी जगह
हो रहा है देखिए रचना वहां, खपना यहां

मैंने ग़ज़ल की रूह से हर तौर माफ़ी मांग ली
बख्‍़शा हुआ गुनाह है लिखना यहां छपना यहां
***
5
शीरींपसन्‍द ज़ुबानाें से
कहते क्‍या ज़िंदानों से

हर बंजर से वीरानों से
जंगल लड़े खदानों से

दानिशमंदी नहीं चली
उलझे थे नादानों से

हंसिये खुर्पी बेकार हुए
निकले तीर कमानों से

घर उट्ठे औ निकल गए
आलीशान म‍कानों से

किस मजमे में गांव फंसा
रोएं स्‍यार सिवानों से

रह पछताए हुशियारों में
अब नाता है दीवानों से
****
6
मुझे त्रिलोचन याद आए
अपने सब जन याद आए

बसकर ऐसे इंसानों में 
रह-रहकर वन याद आए

उसका लड़ना जादू था
सारी अनबन याद आए

इतने विषधर लिपट गए
अब क्‍या चंदन याद आए

सावन में ही मुझको क्‍यों
इक बीता सावन याद आए
***
7
चारा था दर-हक़ीक़त मछलियों के बीच
था मैं भी ग़लत उनकी ग़लतियों के बीच

इक घोंसले की चूं चूं आख़िर को मर गई
चिड़िया फंसी हुई थी बिल्लियाें के बीच

एकात्‍म मानववाद वो बच्‍चा समझ गया
रातें गुज़ार आया है जो संघियों के बीच

कहते हैं वो कि लो ये उजाला नया हुआ
हम फंस गए हैं जलती हुई बस्तियों के बीच
***
8
दो-चार पहाड़े जो उन्‍हें याद हो गए हैं
वो सोचते हैं सबके उस्‍ताद हो गए हैं

जो लोग घूमते थे इन्‍कलाब बन कर
अब देखता हूं अर्ज़ो-फ़रियाद हो गए हैं

मैं भी हुआ हूं जब से कुछ चाक-ग़रेबानां
तेरे शहर के कूचे आबाद हो गए हैं

अम्‍नो-अमां की कोई सूरत नहीं है बाक़ी
जाे थे सईद पहले सैय्याद हो गए हैं

मेरा वजूद तुझमें अब वो शहर है जानां
सारे मकान जिसके बरबाद हो गए हैं

छोड़ता हूं तुझपे कुछ भी निकाल मानी
मेरे ही लफ़्ज़ मुझसे आज़ाद हो गए हैं
***
9
जाने कितने रिश्‍तों को इक रिश्‍ता उलझा देता है
अनजाने तो राह दिखाते,अपना उलझा देता है

एक-एक कर करने लायक मुहलत कब है सांसों को
सब कामों को साथ-साथ में करना उलझा देता है

बहसों की सब धाराएं इक दलदल में तब्‍दील हुईं
कहना उलझा देता है चुप रहना उलझा देता है

कितने काम अधूरे छोड़े कितने मुझसे ग़लत हुए
जीने की सूरत कम हैं औ मरना उलझा देता है

पहले उलझाता मैं था उसको इधर-उधर की बातों में
अब बातों में बहलाकर मेरा बच्‍चा उलझा देता है
***
10


तश्‍नगी का बारिशों में भी भरम रहने दिया
तू है नहीं पर तेरे होने का वहम रहने दिया

तूने कहा रहने भी दो, ये सफ़र इतना ही था
रहने दिया,रहने दिया, तेरी क़सम रहने दिया

इक ज़ुबाने-तुर्श हूं मैं, एक चेहरा सांवला
इंसान के हक़ में लड़ा,दीनो-धरम रहने दिया

फ़ोश गलियों का गुज़र है ज़िन्‍दगी ये सोचकर
मैंने मिरे किरदार में इक बेशरम रहने दिया

ताक़ते-गुफ़्तार लफ़्ज़ों से नहीं नापी, कभी
ख़ामुशी से काम ले, बातों मे ख़म रहने दिया 


***
11



है वही जो दर-हक़ीक़त है नहीं
आदमी है, आदमीयत है नहीं

हम सरीखे शेर फ़रमाने लगे
शाइरी की कम फजीहत है नहीं

बोलने को मुंह दिया करतार ने
सोचने की क़ाबिलीयत है नहीं

चुप रहे इसका उन्‍हें अफ़सोस है
कह सकें ऐसी भी नीयत है नहीं

हाय पार्टी का कार्ड उसकी जेब में
वो सुर्ख़रू सूरत है,सीरत है नहीं
***

12
गर चुप न रहते उनके जैसे हम भी पागल हो जाते
इतना कीच इकट्ठा था कि रस्‍ते दलदल हो जाते

वनवासी भी न होते, कोई पेड़ ही होते जंगल का
कुछ रोशन-काले हाथों में हम भी इक मांदल हो जाते

जैसी अपनी फ़ितरत है और जैसी अपनी संगत है 

उजला चंदा क्‍या होते हम काला बादल हो जाते  

कभी सोचते हैं कि जीवन यों ही चलते रहना था 
कितने लोग झगड़ते हमसे कितने दंगल हो जाते 

यार फ़क़ीरी दुनिया में बस बाने का ही नाम नहीं 
हम भी थे उस रस्‍ते पर कुछ और जो बेकल हो जाते 
***
13
कीचड़ में ही पांव रखें इतने भी नादान नहीं 
बेज़ार रहे हैं दुनिया से लेकिन हम अनजान नहीं 



1 comment:

  1. खारिज वाह के काबिल हैं तो सम्हाली हुई पोटली भी खोल दीजिये।

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