Sunday, August 17, 2014

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1
हां,कुछ बुझते दिल ने भी सुना लेकिन कहा कुछ भी नहीं
ढूंढा मुझे, पूछा मुझे, मैं लामकां, मेरा पता कुछ भी नहीं

धोखेबाज़ भाई से भी झुककर ही मिलूं ये मिरी तहज़ीब है
वो जानता हैं अब हमारे बीच धोखे के सिवा कुछ भी नहीं

अब कहां वो आंच रिश्‍तों में, कहां वो लोग, वो बातें कहां
जा मिरी जां लुट चुकी वो बस्तियां बाक़ी रहा कुछ भी नहीं

लाख उजड़ी हों मिरी राहें मगर, इन पर गुज़र थमता नहीं
नक्‍शे-पा बनते रहें इसके सिवा दिल की दुआ कुछ भी नहीं

न पूछो क्‍यों कभी सदमें में रहता हूं कभी सदक़े में रहता हूं
ख़ुद ही मैं बला-ए-जान हूं ख़ुद पर, दूजी बला कुछ भी नहीं
***

2
अपनों के चेहरों के पीछे गैर निकल आए 
पाक दोस्‍ती में भी कितने बैर निकल आए 

इंसानों के बसने को ये बस्‍ती भी ठीक नहीं
घर समझा था जिनको वो तो दैर निकल आए

जो लोग हमारे दिल में दीमक-से रहते थे 
जोड़े उनको हाथ मांगी ख़ैर निकल आए

सारे घेरे छोड़ दिए सारे बंधन तोड़ दिए    
हम तो ख़ुद से बाहर करने सैर निकल आए
***
3
पीठ घुमाते ही क्‍यों इतने खंजर मिलते हैं
बद छूटे तो हमको आगे बदतर मिलते हैं 

निष्‍प्रभ हैं चेहरे जो हमसे, अकसर मिलते हैं
खिले हुए मिलते थे,अब तो बुझकर मिलते हैं

देखो तो फुटपाथों पर भी घर मिल जाता है
यों बड़े मकानों के भी वासी बेघर मिलते हैं

हमने भी मेय्यार बदल डाले हैं रिश्‍ते-नातों के
कम मिलते हैं साथी लेकिन बेहतर मिलते हैं 

मामूली बातों के शाइर हममें कुछ भी ख़ास नहीं   
गली-गली फिरते हैं, हम तो दर-दर मिलते हैं  
*** 
4
अपनों के बीच कहीं हलकट भी होते है
बाग़ीचे ही नहीं होते, मरघट भी होते हैं

हरदम ही परेशां-जान, तनहा नहीें रहते
गिर्द यारों के कभी जमघट भी होते हैं

दोस्‍त होने का अहद, जोखिम की बात है 
तुम छोड़ दो इसमें कई झंझट भी होते हैं

मौका मिलते ही झपट कर काट खाते हैं
इंसानों के बीच छुपे मरकट भी होते हैं

साफ़ लगता है ऊपर से पानी नदी का
गहराई में झांको तो तलछट भी होते हैं

जिन्‍दगी की राह में क्‍यों आखिरे-सफ़र
काम होते हैं तो फिर झटपट भी होते हैं  

5
करने को कितनों ने सुख़नदराज़ी की
लफ़्ज़ों में भरम रक्‍खे, शोशेबाज़ी की

ज़िंदगी को हमसे रूठने की आदत है
क्‍या बताएं क्‍या कहके हमने राज़ी की

नौउम्रों पे नमाज़े-अलविदा पढ़ा आए
अब क्‍या उम्र है उनकी उमरदराज़ी की

दुखेगी देह, झुकेगा हमारा माथा भी
हमने ग़लतियां ढोई हैं अपने माज़ी की

उन्‍होंने किया उन्‍हें जो कर गुज़रना था
पलकों पे रखा हमने, दिलनवाज़ी की

वो ग़लतियां करते सुधर भी जाते कभी
शेर कहने में की भी तो जालसाज़ी की

ईमान की ख़ातिर लड़ा जगह-जगह जाकर
भवालिवी ने रूह पाई है किसी गाज़ी की 

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